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पॉलिटिक्ससम्पादकीय

राजनीतिक चूक की भेंट चढ़ी कमलनाथ सरकार, चिंतन करें राजस्थान और छत्तीसगढ़

जरूर पढें भारतीय राजनीति की गहरी समझ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार डा संजय कुमार "शेखर "का विश्वलेषणात्मक आलेख

 

 

   डा.संजय कुमार ‘शेखर’, वरिष्ठ पत्रकार व शोधार्थी

मध्यप्रदेश की कांग्रेस (Congress ) राजनीति में 1967 के इतिहास को दोहराया गया और 15 साल के संघर्ष के बाद सत्ता में आई कमलनाथ सरकार (Kamalnath Govt ) महज 15 महीने की अल्प अवधि में धाराशयी हो गई। 1967 में कांग्रेस की डीपी मिश्र सरकार को गिराकर विजयाराजे सिंधिया (Vijayaraje Sindhiya)  ने जो इतिहास रचा था, उनके पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया  (jyotiradity Sindhiya) ने 53 साल बाद महज उसको दोहराया है। समानता यह भी है कि विजयाराजे सिंधिया भी कांग्रेस से जनसंघ में गई थी और अब सिंधिया ने भी कांग्रेस से मोहभंग होने पर बीजेपी की तरफ रूख कर लिया है।  सवाल उठता है कि कांग्रेस से सिंधिया का मोहभंग होना महज सत्तालोलुपता या अतिमहात्वाकांक्षा का परिणाम है? या फिर यह कांग्रेस की लचर राजनीति की परिणति है?

बहुतेरे लोग मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार के इस्तीफे को लोकतंत्र की हत्या करार दे रहें हैं। राजनीतिक रूप से कांग्रेस का यह आरोप अपनी गलती को ढ़ंकने की एक कवायद हो सकती है।  यह तो आईने की तरह साफ है कि कमलनाथ की सरकार अपनों को ना साध पाने की राजनीतिक चूक की भेंट चढ़ी है। अपना घर नही संभाल पानेवाली एक राष्ट्रीय पार्टी यदि अपनी पार्टी की कलह के लिए दूसरे राजनीतिक दल या केन्द्र सरकार को जिम्मेवार ठहरा दे तो स्पष्ट है कि आपके पास अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए और कुछ बचा नही है। खासतौर पर तब जबकि आपके सामने ऐसी सोंच और राजनीति की चुनौतियां मौजूद हो जिसमें देश का प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का आह्वान कर रहा है और ऐसा करने के लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार हों। इन चुनौतियों के बावजूद यदि आप अपने आप को संभालने की स्थिति में नही है तो आपको  गंभीरता से आत्मावलोकन करने की जरूरत है।

कमलनाथ सरकार की कब्र तो उसी दिन खुद गई थी जिस दिन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने सार्वजनिक तौर पर सिंधिया के बारे में कहा था कि उन्हें सड़क पर उतरना है तो उतर जाएं। याद कीजिए कि इस बयान के बाद सीएम ने कोई सफाई भी पेश नही की। इतना ही नही आईने की तरह साफ था कि सिंधियां कांग्रेस से पूरी तरह रूष्ट है और वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। उन्होंने अपने ट्वीटर हैंडल समेत सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म से कांग्रेस नेता होने के अपने सभी परिचय को हटा दिया। क्या बावजूद इसके सिंधिया को साधने की मध्यप्रदेश अथवा दिल्ली स्तर पर कोई गंभीर कोशिश हुई? क्या यह सच नही है कि मध्यप्रदेश से लेकर कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व तक ने सिंधियां की रूष्टता, गुस्सा और महात्वाकांक्षा को बहुत ही हल्के में लिया? क्या यह सच नही है कि कलमनाथ और दिग्गी राजा की जोड़ी ने सिंधिया को घोषित-अघोषित चुनौती दी कि वे जो चाहे कर सकते है? ऐसी स्थिति में यदि सिंधिया ने अपनी लाईन तय कर ली और भाजपा को अवसर मिल गया तो वह लोकतंत्र की हत्या कैसे हो गया?

याद रखिए कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत साझें नेतृत्व की अथक कोशिशों का परिणाम है। मतदाताओं ने मोटे तौर पर मध्यप्रदेश में कमलनाथ और सिंधिया, राजस्थान में गहलोत और सचिन पायलट और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव की जोड़ी को देखकर कांग्रेस को वोट किया था। तीनों ही प्रदेश की बड़ी आबादी और कांग्रेस नेता-कार्यकर्ता, जोड़ी के दूसरे नेता को मुख्यमंत्री के तौर पर देखने के आकांक्षी थे। लेकिन यदि उन्हें सीएम बनने का मौका नहीं मिल सका तो उनके मान-सम्मान की रक्षा तो की ही जानी चाहिए, ना कि उन्हें हांसिये पर डालकर राजनीतिक रूप से खत्म करने की साजिश रची जाए। याद रखिए कि यदि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी जोड़ी के दूसरे नेता और अन्य वरिष्ठों की उपेक्षा होगी तो भारी बहुमत के बावजूद किसी अनहोनी की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।

कांग्रेस में नेतृत्व का संकट भी पार्टी की मौजूदा स्थिति के लिए जिम्मेवार है। पार्टी की मौजूदा अध्यक्षा अपने स्वास्थगत कारणों से पार्टी में जान फूंकने की स्थिति में नहीं है जबकि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने जिस उदेश्य से पिछले साल अध्यक्ष का पद छोड़ा था, वो उदेश्य भी पूरा नहीं हो पा रहा है। ऐसी स्थिति में मौजूदा बीजेपी के साम, दाम, दंड, भेद से पार पाना कांग्रेस पार्टी के लिए आगे भी बहुत आसान नहीं होगा । क्योंकि बीजेपी ( bjp)  का ध्येय स्पष्ट है कांग्रेस मुक्त भारत और कांग्रेस पार्टी संगठन को मजबूत करने के बजाए राष्ट्रीय नेतृत्व के संकट में ही उलझी हुई है।

 

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