‘ठोस सबूत न हो तो पत्नी की आत्महत्या के लिए पति जिम्मेदार नहीं’, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

नई दिल्ली। किसी भी व्यक्ति को शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी तब तक नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उत्पीड़न या क्रूरता के ठोस सबूत न हों। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप झेल रहे एक व्यक्ति को बरी करते हुए यह टिप्पणी की।
अभियोजन पक्ष के मुताबिक, “व्यक्ति ने 1992 में शादी की थी। शादी के तुरंत बाद व्यक्ति और उसके माता-पिता ने पैसे की मांग शुरू कर दी। व्यक्ति राशन की दुकान खोलना चाहता था। महिला ने 19 नवंबर 1993 को जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। उसने अपने पति के उत्पीड़न के कारण आत्महत्या की थी।”
करनाल के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 1998 में व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के तहत दोषी ठहराया था। इसके बाद पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस फैसले को बरकरार रखा था। वहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आईपीसी की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत किसी व्यक्ति को तभी दोषी ठहराया जा सकता है, जब किसी अपराध के लिए उसका स्पष्ट आपराधिक इरादा हो।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ मामले पर सुनवाई कर रही थी। पीठ ने कहा, आरोपी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराने के लिए महज उत्पीड़न के आरोप पर्याप्त नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, अदालतों को शादी के सात साल के भीतर महिला को आत्महत्या के लिए उकसाने के मुकदमों में कानून के सही सिद्धांतों को लागू करने में बहुत सावधान और सतर्क रहना चाहिए। अन्यथा यह धारणा बन सकती है कि दोषसिद्धि कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक है।